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“लोकतंत्र खतरे में है” यह बोलते हुवे सर्वोच्च न्यायालय के 4 न्यायाधीशों का देश के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. हमारे माननीय न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश के द्वारा उनको दिए जाने वाले मुकदमों से नाखुश थे. इसमें एक और तात्कालिक मुद्दा जस्टिस लोया की मौत की जाँच का भी है. माननीय न्यायाधीशों ने प्रेस कांफ्रेंस करते हुए बोले की देश की जनता तय करेगी और हम नहीं चाहते की २० साल बाद कोई यह कहे की हमने अपनी आत्मा बेच दी थी. पिछले ७० सालों में देश में कभी भी ऐसा घटनाक्रम नहीं हुआ जब न्यायाधीशों ने प्रेस कांफ्रेंस की हो और न्यायपालिका की अंतरकलह देश के सामने सार्वजनिक हुई हो. फिलहाल यह घटना देश के लिए एक अतिदुर्भाग्यपूर्ण घटना है.
इन ४ न्यायधीशों द्वारा झगड़े की मूल वजह मुख्य न्यायाधीश द्वारा मुकदमों का ठीक तरह से बंटवारा नहीं करना बताया जा रहा है. मुख्य न्यायाधीश अभी तक परंपरा के आधार पर मुकदमों को किसी न्यायाधीश के पास सुनवाई के लिए भेजते हैं. इन न्यायधीशों ने कुछ मामलों में मुख्य न्यायाधीश द्वारा इस परंपरा का पालन नहीं करने का आरोप लगाया है. यह मामला बचकाना सा लगता है की कोई जज खुद को मिलाने वाले मुकदमों से नाखुश है. क्या न्यायाधीश किसी खास मुकदमे की सुनवाई करना चाहते हैं अथवा विपक्ष द्वारा मुख्य न्यायाधीश पर किसी खास मुकदमे की सुनवाई से पहले दबाव बनाने का यह षड्यंत्र मात्र था?
इन ४ न्यायाधीशों ने एक मामला जस्टिस लोया की मौत का उठाया है जो की भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से जुड़े एक विशेष मुकदमे की सुनवाई कर रहे थे. इस मामले को अभी कुछ महीने पहले एक मीडिया हाउस ने उठाया था. जिसके बाद कई अन्य पत्रकारों ने भी उठाया था. मुंबई हाई कोर्ट में इस मामले की सही जाँच के लिए एक याचिका पर सुनवाई भी हो रही है. जस्टिस लोया के बेटे और परिवार ने कभी भी इस मौत को संदेहास्पद नहीं माना है. उनके पुत्र ने मीडिया और अपनी चिठ्ठियों के द्वारा इस मामले में किसी षड्यंत्र से भी इंकार किया है. फिर इन ४ न्यायाधीशों द्वारा इस मामले का जिक्र करना काफी आश्चर्यजनक है.
इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुछ चहरे ऐसे भी थे जिनकी वजह से यह मामला राजनीतिक षड्यंत्र ज्यादा लगा. पत्रकार शेखर गुप्ता और वकील इंद्रा जय सिंह की उपस्थिति अतयंत संदेहजनक थी. इन लोगों का वँहा क्या काम था अब ये दोनों ही बता सकते हैं. कम्युनिष्ट नेता डी.राजा से इन न्यायधीशों की मुलाकात भी क्यों हुई? इसका भी कोई वाजिब कारण पता नहीं लगा. उसके बाद कांग्रेस पार्टी के जिस तरह के बयान आये उससे यह संदेह और गहरा हो गया कि यह एक राजनीतिक षड्यंत्र था. जिसका मूल उद्देश्य मुख्य न्यायाधीश पर सिख दंगे और राम मंदिर जैसे मुकदमों में दबाव बनाया जा सके.
जैसा कि कांग्रेस की राजनीति रही है वह हमेशा दोतरफा गेम खेलती है. वह इस मुद्दे से कई तरह के लाभ लेना चाहती थी. एक तरफ तो वह हिन्दू और सिख मतदाताओं को यह सन्देश देती है कि वह हिन्दू और सिख विरोधी नहीं है. दूसरी तरफ उसके पार्टी के नेता इन मुकदमों में विरोधी पक्ष है और अब कांग्रेस ने मुख्य न्यायाधीश पर भी पीछे से दबाव बनाने का कुत्सित प्रयास किया है.
सिख विरोधी दंगों की फिर से जांच और राम मंदिर केस की कुछ ही दिनों में रोज सुनवाई शुरू होने वाली है. यह दोनों मुद्दे कांग्रेस के लिए किसी दुखद स्वपन से कम नहीं है. इसलिए कांग्रेस न्यायपालिका पर दबाब बनाना चाहती है और अपने नजदीकी न्यायाधिशों के जरिये यह काम कर रही है. इस घटनाक्रम से इन न्यायाधीशों ने अपनी साख खो दी है और सरकार के लिए अब इनकी जगह पर किसी और को मुख्य न्यायाधीश बनाने में आसानी होगी.
इस पूरे घटनाक्रम में यह न्यायाधीश न होकर एक राजनीतिक कार्यकर्ता ज्यादा लगे जिनका उद्देश्य देश की संवैधानिक संस्थाओं पर आक्रमण कर अपने सुप्रीमो को बचाना होता है. इसी साल राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी के खिलाफ नेशनल हेराल्ड के मामले में फैसला आना है. इसी मामले में दोनों जमानत पर रिहा हैं. साथ ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी.चिदंबरम और उनके बेटे पर ही मुकदमे शुरू होने वाले हैं.
तीन तलाक पर आये कोर्ट के फैसले से भी कांग्रेस काफी असहज है. अगर न्यायाधीशों को किसी तरह की शिकायत थी तो वह राष्ट्रपति को मामले की जानकारी दे सकते थे अथवा सभी न्यायाधीशों की बैठक में फिर से यह मामला उठा सकते थे.
कांग्रेस का पुराना रिकॉर्ड रहा है कि कांग्रेस ने हर संवैधनिक संस्था जो कि उसके इशारे पर काम नहीं करती उस पर मिथ्या आरोप लगाकर उसे कमजोर करने की कोशिश करती है. चुनाव आयोग, कैग और अब सुप्रीम कोर्ट पर यह आरोप इसी दिशा में एक कदम है. सुप्रीम कोर्ट पर हमला और इसे अपने हिसाब से ढालने का प्रयास कांग्रेस १९७५ से ही कर रही है जब स्व. इंदिरा गाँधी सरकार कोर्ट के फैसले से गिर गयी थी.
एक और वाकये का यहां वर्णन करना जरुरी है. कांग्रेस राज में कैसे न्यायाधीशों की नियुक्ति होती थी इसका उदाहरण अभिषेक मनु सिंघवी की एक सार्वजनिक सीडी है. यह उसी सुप्रीम कोर्ट के किसी चैम्बर में बनी थी.
लोकतंत्र खतरे में है” यह शब्द निश्चित तौर पर किसी न्यायाधीश के नहीं हो सकते हैं. हमारे देश में लोकतंत्र के ४ खम्भे माने जाते हैं.
१. विधायिका (संसद)
२. न्यायपलिका
३. कार्यपालिका
४. मीडिया
इन चारों खम्भों पर ही हमारा लोकतंत्र टिका हुआ है. अब किस न्यायाधीश को उसके मनपसंद का केस ना मिलाने से हमारे देश का लोकतंत्र कैसे खतरे में आ गया है? यह इन ४ न्यायाधीशों से पूछा जाना चाहिए. वैसे हमारे देश में आम जनता न्यायाधीशों से कुछ पूछ ले, तो कोर्ट की अवमानना के जुर्म में आपको जेल में डाला जा सकता है.
इन ४ न्यायाधीशों ने इसे जनता को अपने मामले का फैसला देने को कहा है. जबकि जनता का देश के न्यायाधीशों के मसलों से कोई सरोकार नहीं है ना ही वो इन्हें चुनती है. जब न्यायाधीश आपस में बैठ कर खुद ही न्यायाधीश चुन लेते हैं तब जनता से नहीं पूछते.ना ही कभी ३ करोड़ पेंडिंग मुकदमों के लिए कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं. इन्हे तब लोकतंत्र खतरे में नहीं लगता? वो दिन भी आयेगा जब कभी जनता इनसे अपने बर्बाद समय और पैसे के बारे में पूछेगी.
ये ४ न्यायाधीश अपने नायक और बाकि २० न्यायाधीशों को खलनायक बनाना चाहते है. लेकिन सोशल मीडिया के इस दौर में अब यह इतना आसान नहीं रहा है और जनता के पास सही जानकारी और उद्देश्य पहुंच रहे हैं. इन न्यायाधिशों को अब अपने को पदमुक्त कर लेना चाहिए. इनकी विश्वसनीयता अब संदेह के घेरे में है और इनके हर फैसले पर अब सवाल उठेंगे. ”लोकतंत्र खतरे में है” यह जुमला अब सरकार विरोधियों का प्रिय नारा हो गया है.
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